चेहरे पे एक के भी न पाया वफ़ा का रंग
अहल-ए-जहाँ का ख़ून हुआ सर-ब-सर सपेद
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यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
क्या खींचे है ख़ुद को दूर अल्लाह
गो भूल गया हूँ मैं तुझे तो भी तिरा रंग
गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
इन आँखों से आब कुछ न निकला
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त
कुछ अपनी जो हुर्मत तुझे मंज़ूर हो ऐ शैख़
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को