चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
देखे है दो दो पहर मजनूँ ग़ज़ालाँ की तरफ़
Wasi Shah
Javed Akhtar
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Gulzar
Rahat Indori
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अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की
नसीबों से कोई गर मिल गया है
ये आँखें हैं तो सर कटा कर रहेंगी
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में
उस की पड़ी न आँख ख़त-ओ-ख़ाल पर तिरे
मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
अल्लाह-रे तेरे सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ की कशिश
मुझ को ये सोच है जीते हैं वे क्यूँ-कर या-रब