उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
खींची है दरमियाँ में दीवार ज़िंदगी से
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तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
यार होता है मिरा लाला-अज़ार एक न एक
ऐ 'मुसहफ़ी' उसे भी रखता है शाद जी में
मारे हया के हम से वो कल बोलता न था
मेरे दिल-ए-शिकस्ता को कहती है देख ख़ल्क़
जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते
हो चुका नाज़ मुँह दिखाइए बस