ऐ 'मुसहफ़ी' उसे भी रखता है शाद जी में
हर दम वो मेरा कहना क्या छातियाँ हैं तेरी
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आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
कब सबा सू-ए-असीरान-ए-क़फ़स आती है
आह हमराज़ कौन है अपना
नमली और न दूदी है न मंशारी है
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
क्या जाने क्या करेगा ये दीदार देखना
छुआ हो अगर मैं ने काकुल को तेरी
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
किधर जाइए और कहाँ बैठिए