ऐ 'मुसहफ़ी' उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
तुझ सा कोई आलम को मैं छाना नहीं मिलता
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हम सुबुक-रूह असीरों के लिए लाज़िम है
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
इस रंग से अपने घर न जाना
तिरे मुँह छुपाते ही फिर मुझे ख़बर अपनी कुछ न ज़री रही