उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
इक आन में जी उट्ठें इक आन में मर जावें
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है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
बस हम हैं शब और कराहना है
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
नित जिन आँखों में रहे था तेरी सूरत का ख़याल
हम गबरू हम मुसलमाँ हम जम्अ हम परेशाँ
ऐ काश कोई शम्अ के ले जा के मुझे पास
दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
पर्दा उठा के मेहर को रुख़ की झलक दिखा कि यूँ
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है