दिल ही दिल में याँ मोहब्बत अपना घर करती रही
हम रहे ग़ाफ़िल वो सौ टुकड़े जिगर करती रही
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मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
अपनी ग़रज़ को आए थे वो रात 'मुस्हफ़ी'
जूँ ही ज़ंजीर के पास आए पाँव
सैल-ए-गिर्या का मैं ममनूँ हूँ कि जिस की दौलत
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
शहर में मुझ से भड़कता था तसव्वुर तेरा
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का
पैरहन लूटे मज़े तेरी हम-आग़ोशी के
साया-ए-दीवार जो रोज़-ए-क़यामत में न था