ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
फिर न आने की जो हम खा के क़सम निकले हैं
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सैराब आब-ए-जू से क़दह और क़दह से हम
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
है यहाँ किस को दिमाग़ अंजुमन-आराई का
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
अक्स से अपने अगर राह नहीं तुम को तो जान
मैं ने किस चश्म के अफ़्साने को आग़ाज़ किया
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
क्या नाज़ुकी बदन की उस रश्क-ए-गुल के कहिए
सदा फ़िक्र-ए-रोज़ी है ता ज़िंदगी है
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है