ए'तिबारात हैं ये हस्ती-ए-मौहूमी के
फ़िल-हक़ीक़त तो कोई ख़ाँ है न नव्वाब है याँ
Mohsin Naqvi
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आँखें हैं जोश-ए-अश्क से पनघट
ख़्वाब-ए-आराम में सोता था वो गुल क़हर हुआ
ग़ुस्से को जाने दीजे न तेवरी चढ़ाइए
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
मेहंदी के धोके मत रह ज़ालिम निगाह कर तू
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
अपनी ग़रज़ को आए थे वो रात 'मुस्हफ़ी'
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
लहरों का थरथराना क्यूँ-कर पसंद आवे
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
या-रब आबाद होवें घर सब के