कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
नाम लेता नहीं भूले से मुसलमानी का
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मौज-ए-निकहत की सबा देख सवारी तय्यार
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
गर अब्र घिरा हुआ खड़ा है
वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
गो मैं बुतों में उम्र को काटा तो क्या हुआ
आसमाँ को निशाना करते हैं
फ़हमीदा है जो तुझ को तो फ़हमीद से निकल
कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब