कम है कुछ कुंदन से क्या चेहरे का उस के रंग-ए-ज़र्द
इश्क़ कर के 'मुसहफ़ी' तू कीमिया-गर हो गया
Rahat Indori
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तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान
है यहाँ किस को दिमाग़ अंजुमन-आराई का
ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख
यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
अव्वल तो तिरे कूचे में आना नहीं मिलता
ब'अद-ए-मुर्दन की भी तदबीर किए जाता हूँ
दर तलक आ के टुक आवाज़ सुना जाओ जी
क्या चमके अब फ़क़त मिरी नाले की शायरी
ने ज़ख़्म-ए-ख़ूँ-चकाँ हूँ न हल्क़-ए-बुरीदा हूँ