कल सू-ए-ग़ैर उस ने कई बार की निगाह
लाखों के बीच छुपती नहीं प्यार की निगाह
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तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
न वो वादा-ए-सर-ए-राह है न वो दोस्ती न निबाह है
आदमी से आदमी की जब न हाजत हो रवा
मैं जिन को बात करना ऐ 'मुसहफ़ी' सिखाया
ऐ शब हिज्र कहीं तेरी सहर है कि नहीं
उम्र सय्याद की गुज़री इसी जासूसी में
आज ख़ूँ हो के टपक पड़ने के नज़दीक है दिल
ख़्वाब था या ख़याल था क्या था
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो