कल क़ाफ़िला-ए-निक्हत-ए-गुल होगा रवाना
मत छोड़ियो तू साथ नसीम-ए-सहरी का
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ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
सफ़्फ़ाक इब्तिदा से वो बे-रहम है ग़लत
उस्तुख़्वाँ-बंदी-ए-अल्फ़ाज़ का आलम तू देख
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
जो कि पेशानी पे लिक्खा है वही होता है
अभी अपने मर्तबा-ए-हुस्न से मियाँ बा-ख़बर तू हुआ नहीं
तकलीफ़ न दे हम को तो गुल-गश्त-ए-चमन की
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए