क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'
जिस शायरी ने आरिफ़-ए-कामिल किया मुझे
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काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
आए हो तो ये हिजाब क्या है
चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
'मुसहफ़ी' कुछ कम नसारा से नहीं
क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज
देख उस को इक आह हम ने कर ली
उट्ठा गया फ़लक पे गिरा ख़ाक में मिला