चीन-ए-पेशानी न दिखलाओ मैं हूँ नाज़ुक-मिज़ाज
लब तक आते शुक्र का मज़मूँ गिला हो जाएगा
Wasi Shah
Allama Iqbal
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Javed Akhtar
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Anwar Masood
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ले लिया प्यार से अक्स अपने का झुक कर बोसा
कोई घर बैठे क्या जाने अज़िय्यत राह चलने की
मुख-फाट मुँह पे खाएँगे तलवार हो सो हो
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
कुछ इस क़दर नहीं सफ़र-ए-हस्ती-ओ-अदम
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही