मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
आता है आरिफ़ों को नज़र संग-ओ-ख़िश्त में
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ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं
नाज़ुक है मेरा शीशा-ए-दिल इस क़दर कि बस
घटती है शब-ए-वस्ल तो कहता हूँ मैं या-रब
सोहबत है तिरे ख़याल के साथ
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
बाम-ए-फ़लक पे गर वो उड़ाता नहीं पतंग
करता हूँ सवाल जिस के दर पर
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
तुम्हारे हाथ को छोड़ूँ हूँ मैं कोई साहिब