काम अज़-बस-कि ज़माने का हुआ है बर-अक्स
चोर खिंचवाए है इस अहद में कोतवाल की खाल
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सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
चराग़-ए-हुस्न-ए-यूसुफ़ जब हो रौशन
इस वास्ते फ़ुर्क़त में जीता मुझे रक्खा है
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
औरों की तरफ़ तू देखता है
दिल ख़ुश न हुआ ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से निकल कर
आता है किस अंदाज़ से टुक नाज़ तो देखो
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
क़िस्सा-ख़्वाँ बैठे हैं घेरे उस के तईं
शोख़ी-ए-हुस्न के नज़्ज़ारे की ताक़त है कहाँ
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों