जो तू ऐ 'मुस्हफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
तो मेरी जान फिर क्यूँके कोई हम-साया सोवेगा
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औरों की तरफ़ तू देखता है
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
इस इमारत पर न कर मुनइम ग़ुरूर
सज्दा-गाह अपनी किए राह के रोड़े पत्थर
करता हूँ सवाल जिस के दर पर
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
नमली और न दूदी है न मंशारी है
लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
दारुश्शफ़ा-ए-इश्क़ में ले जा के हम को इश्क़
उस के दहान-ए-तंग में जा-ए-सुख़न नहीं
हम सनम दम तिरे इश्क़ का भर गए