क्या तअज्जुब है अगर फिर के हो अहया मेरा
कि मिरी क़ब्र पे आया है मसीहा मेरा
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गर देखिए तो आईना-ए-क़द-नुमा की शक्ल
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
मियाँ सब्र-आज़माई हो चुकी बस
जितना कि ये दुनिया में हमें ख़्वार रखे है
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
कर के ज़ख़्मी तू मुझे सौंप गया ग़ैरों को
अल्लाह-रे काफ़िरी तिरे तर्ज़-ए-ख़िराम की
आँखें न चुरा 'मुसहफ़ी'-ए-रेख़्ता-गो से
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
मरते मरते इसी बुत का मुझे कलमा पढ़ना