कर के ज़ख़्मी तू मुझे सौंप गया ग़ैरों को
कौन रक्खेगा मिरे ज़ख़्म पे मरहम तुझ बिन
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आलम के मुरक़्क़ा को किया सैर मैं लेकिन
ग़ज़ल कहने का किस को ढब रहा है
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है 'मीर' ओ 'मिर्ज़ा' की
ज़ेर-ए-नक़ाब आब-गूँ हाए-रे उन की जालियाँ
तिरे कूचे हर बहाने मुझे दिन से रात करना
आदमी को ग़फ़लत-ए-दुनिया नहीं देती नजात
तुम भी आओगे मिरे घर जो सनम क्या होगा
तीन हिस्से हैं ज़मीं के ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मुहीत
लिया मैं बोसा ब-ज़ोर उस सिपाही-ज़ादे का
रो के इन आँखों ने दरिया कर दिया
शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने