शैख़ मग़रूर है इस्लाम पे क्या साथ अपने
तेरी तस्बीह तो ज़ुन्नार लिए फिरती है
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शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
कुछ अपनी जो हुर्मत तुझे मंज़ूर हो ऐ शैख़
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
तुम भी आओगे मिरे घर जो सनम क्या होगा
ढे जाने का कुछ घर के मुझे ग़म नहीं इतना
इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
इस मर्ग को कब नहीं मैं समझा
हर दम आते हैं भरे दीदा-ए-गिर्यां तुझ बिन
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
इक जाम-ए-मय की ख़ातिर पलकों से ये मुसाफ़िर
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं