शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
ये सुब्ह-ख़ेज़िया तो वो है अठाई-गीरा
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जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ क्या करूँ
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
इस इश्क़ ओ जुनूँ में न गरेबान का डर है
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
क्या वो भी चाव-चूज़ के दिन थे कि जिन दिनों
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
हमेशा शेर कहना काम था वाला-निज़ादों का
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
हर चंद अमरदों में है इक राह का मज़ा
सरासर ख़जलत-ओ-शर्मिंदगी है
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का