कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
शब-ए-तारीक है और मिलती नहीं राह कहीं
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यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
उस के कूचे में पुकारेगा अगर मुझ को रक़ीब
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
नज़्र को किस गुल-ए-नौ-रस्ता के दामन में नसीम
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
मिस्र को छोड़ के आई है जो हिंदुस्ताँ में
ओ मियाँ बाँके है कहाँ की चाल
लब बंद ही रक्खो, नहीं फिर और करेगा
वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
है तिरी कू में ख़बर हश्र के हंगामे की