यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
नित जिस की सलामी है फ़रासीस की टोपी
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मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
आज पलकों को जाते हैं आँसू
सोते हैं हम ज़मीं पर क्या ख़ाक ज़िंदगी है
दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
तख़्ता-ए-आब-ए-चमन क्यूँ न नज़र आवे सपाट
सोच दिन रात यही है तिरे दीवाने की
तुम्हारे सामने क्या 'मुसहफ़ी' पढ़े अशआर
इस नाज़नीं की बातें क्या प्यारी प्यारियाँ हैं
सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास