सरक ऐ मौज सलामत तो रह-ए-साहिल ले
तुझ को क्या काम जो कश्ती मिरी तूफ़ान में है
Allama Iqbal
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मुफ़्लिस के दिए की सी तिरा दाग़-ए-दिल अपना
हरगिज़ न मुझ से साफ़ हुआ यार या नसीब
दिल सीने में बेताब है दिलदार किधर है
मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
बस बहुत ज़ब्त-ए-ग़म-ए-इश्क़ किया
ख़ाना-ए-दिल पे बिना अर्श की तू रख तो सही
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
गर ख़ाक से हमारी पुतला कोई बनावे
मुल्हिद हूँ अगर मैं तो भला इस से तुम्हें क्या
आज पलकों को जाते हैं आँसू