मैं तो जाता हूँ तरफ़ काबे के पर काफ़िर ये पाँव
दैर के रस्ते लिए जाते हैं मुझ को सू-ए-दोस्त
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सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
कर के सदक़े रख दिया दिल यूँ मैं उस की राह में
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
पैवस्ता गर्द-ए-दश्त रही गर तह-ए-दरूँ
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
ऐ फ़लक किस ने कहा था तुझे ये तो बतला
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
अव्वल तो थोड़ी थोड़ी चाहत थी दरमियाँ में
किस ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम के आई है मुक़ाबिल
उश्शाक़ का कुछ मैं ने आलम ही नया देखा
मिस्र को छोड़ के आई है जो हिंदुस्ताँ में