मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
सितारा-ए-सहरी मुझ को आँख मार रहा
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कभी तो बैठूँ हूँ जा और कभी उठ आता हूँ
ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
ईद तू आ के मिरे जी को जलावे अफ़्सोस
कहीं मग़्ज़ उस के मैं सुब्ह-दम तिरी बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा गई
मैं क्या कहूँ उस नग़मा-ए-मस्तूर की तस्वीर
आह हमराज़ कौन है अपना
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
कुफ़्र फैला है यहाँ तक कि ज़माने में कोई
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
कल सू-ए-ग़ैर उस ने कई बार की निगाह