ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
जहाँ जावें वहाँ इक आध को हम ताक रहते हैं
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वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
शैख़-उल-हरम मोअज़्ज़िन दोनों चलन के बद हैं
गरचे ऐ दिल आशिक़-ए-शैदा है तू
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
अब शीशा-ए-साअत की तरह ख़ुश्की के बाइस
किसी जंगल के गुल-बूटे से जी मेरा बहल जाता
दिल और सियह हो गए माह-ए-रमज़ाँ में
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से