ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
ऐसे डरे हैं किस की निगाह-ए-ग़ज़ब से हम
बद-ख़्वाब हो गए हैं जो दो चार शब से हम
कब कामयाब-ए-बोसा हुए उस के लब से हम
शर्मिंदा ही रहे दिल-ए-मतलब-मतलब से हम
बोसा न ले सके कफ़-ए-पा का अदब से हम
काटें हैं इस लिए कफ़-ए-अफ़्सोस शब से हम
सौदा-गर-ए-सफ़ा-ए-दिल-ए-बे-ग़ुबार हैं
अज्नास-ए-शीशा लाए हैं शहर-ए-हलब से हम
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
शाकी हैं अपने ही दिल-ए-आफ़त-तलब से हम
कश्ती हमारी बहर की है माँझधार में
निकले हैं कब कशाकश-ए-लुत्फ़-ओ-ग़ज़ब से हम
तर्ज़-ए-ख़िराम-ए-नाज़ की बे-एतिदालियाँ
देखें हैं और कुछ नहीं कहते अदब से हम
बुर्के में हो कि पर्दा-ए-चादर में ख़ूब-रू
पहचानते हैं वज़्अ से शोख़ी से छब से हम
शग़्ल-ए-शराब ओ शीशा ओ साक़ी-ए-नग़्मा-संज
ताइब हुए हैं आलम-ए-पीरी में सब से हम
बे-लुत्फ़ ज़िंदगी के हैं दिन आ भी ऐ अजल
तेरे ही इंतिज़ार में बैठे हैं कब से हम
फ़न इतना कम क्या है कि इन रोज़ों 'मुसहफ़ी'
दिल में इक उन्स रखते हैं शेर-ए-अरब से हम
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