दुख़्तर-ए-रज़ की हूँ सोहबत का मुबाशिर क्यूँ-कर
अभी कम-सिन है बहुत मर्द से शरमाती है
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तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
'मुसहफ़ी' तू ने ज़ि-बस गुल के लिए हैं बोसे
हमेशा शेर कहना काम था वाला-निज़ादों का
गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
यारान-ए-सुख़न-गो की है वो कंपनी अपनी
कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा
अगरचे दिल तो हमें तुम से कुछ अज़ीज़ नहीं
तूर पर अपने किसी दिन भी ख़ुर-ओ-ख़्वाब है याँ
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
दिल के नगर में चार तरफ़ जब ग़म की दुहाई बैठ गई
डाल कर ग़ुंचों की मुँदरी शाख़-ए-गुल के कान में