दो तीन दम-ए-सर्द भरे हैं तो वो बोले
जाओ मिरी मज्लिस को न कश्मीर बनाओ
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सिधारी क़ुव्वत-ए-दिल ताब और ताक़त से कह दीजो
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना
ना-अहल हम हैं वर्ना सरापा में यार के
ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
तुम भी आओगे मिरे घर जो सनम क्या होगा
जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
बस-कि तेज़ाब से कुछ कम भी न था वो दम-ए-क़त्ल
उस ने गाली मुझे दी हो के इताब-आलूदा
किस की ख़ातिर को मुक़द्दम रख्खूँ मैं हैरान हूँ
बैठे बैठे जो हम ऐ यार हँसे और रोए