ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
दहशत से वाँ ठहर न सका पा-ए-मोहतसिब
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जो शैख़-ए-शहर आया हम से औबाशों की मज्लिस में
मेरी सी तू ने गुल से न गर ऐ सबा कही
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
रात दिन गर्दिश में है पर हो नहीं सकता हनूज़
ने बुत है न सज्दा है ने बादा न मस्ती है
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
ऐ इश्क़ तेरी अब के वो तासीर क्या हुई
सब उठ्ठे बज़्म से और अपने अपने घर को चले
गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
जाने दे टुक चमन में मुझे ऐ सबा सरक
हम-सफ़ीरों से सबा कहियो कि तुम में भी कभी