सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
जिन लबों से कि मयस्सर नहीं दुश्नाम मुझे
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चखी न जिस ने कभी लज़्ज़त-ए-सिनान-ए-निगाह
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
नख़्ल लाले जा जब ज़मीं से उठा
रक्खा है ठौर मुझ को कहरवे के नाच ने
किश्वर-ए-दिल अब मकान-ए-दर्द-ओ-दाग़-ओ-यास है
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
दम ग़नीमत है कि वक़्त-ए-ख़ुश-दिली मिलता नहीं
यार रोते रहे सब रूह ने परवाज़ किया
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
तू मेरे दर्द से आगाह यूँ न होवेगा
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी