मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
ऐ पीर-ए-चर्ख़ सब ये बद-ज़ातियाँ हैं तेरी
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होता है मुसाफ़िर को दो-राहे में तवक़्क़ुफ़
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
क्यूँ कि कहिए कि अदा-बंदी है
शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
ज़ुल्फ़ अगर दिल को फँसा रखती है
तन तो कहाँ है शोला-ए-फ़ानूस की तरह
पटरे धरे हैं सर पर दरिया के पाट वाले
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
कभू तक के दर को खड़े रहे कभू आह भर के चले गए
बोइए मज़रा-ए-दिल में जो इनायात के बीज