ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
पड़ते हैं रातों को याँ ऐसे ही पत्थर ख़्वाब में
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ऐ 'मुसहफ़ी' तुर्बत का मिरी नाम न लेना
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
मार नहिं डालते हैं यूँ उस को
मैं तुझ को याद करता हूँ इलाही
जाते जाते राह में उस ने मुँह से उठाया जूँही पर्दा
सुन्नी ओ शीआ के क़ज़िए में है हैराँ मिरी अक़्ल
रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
अज़-बस भला लगे है तू मेरे यार मुझ को
फ़रियाद को मजनूँ की सुने कौन जहाँ हों
आज पलकों को जाते हैं आँसू
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'