ख़ुर्शीद-रू हमारा जिस से मिलेगा हर सुब्ह
दानिस्ता वो नमाज़ें अपनी क़ज़ा करेगा
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मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
तरह ओले की जो ख़िल्क़त में हम आबी होते
बारा-वफ़ातें बीसवीं झड़ियाँ हैं सौ जगह
रातों को आँख उठा के ज़रा देख तो सही
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
क्यूँकर न तुझे दौड़ के छाती से लगा लूँ
न प्यारे ऊपर ऊपर माल हर सुब्ह-ओ-मसा चक्खो
तदबीर मआश इस जा है शर्त-ए-ख़िरद-मंदी
सामने उस के लगूँ रोने तो झुँझला के कहे
मैं उन मुसाफ़िरों में हूँ इस चश्म-ए-तर के हाथ
दर्द-ओ-ग़म को भी है नसीबा शर्त
किस वक़्त जुदा मुझ से वो कम्बख़्त हुई थी