खुलता है क़ुफ़्ल-ए-ऐश मिरा इस से 'मुसहफ़ी'
जिस के इज़ार-बंद में छोटी कलीद है
Habib Jalib
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इक हाल हो तो यारो उस का बयाँ करें हम
मैं सवा शेर के कुछ और समझता ही नहीं
मैं वो दोज़ख़ हूँ कि आतिश पर मिरी
उस के कूचे में सदा मुझ को नज़र आता है
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़
वादा-ए-वस्ल दिया ईद की शब हम को सनम
अज़-बस-कि तू प्यारा है मुझे तेरे सिवा यार
ख़्वाहिश-ए-वस्ल तो रखता हूँ बहुत जी में वले
उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
जब कि बे-पर्दा तू हुआ होगा
दो तीन दम-ए-सर्द भरे हैं तो वो बोले