उस्ताद कोई ज़ोर मिला क़ैस को शायद
ली राह जो जंगल की दबिस्ताँ से निकल कर
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शब-ए-हिज्र का माजरा कोएले से
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास
किस के मजरूह गुलिस्ताँ में हैं मदफ़ूँ जो हनूज़
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर
भूल जावे साहिब-ए-इक़बाल अपनी सर-कशी
तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
दैर ओ हरम ब-चशम-ए-हक़ीक़त नहीं जुदा
यादगार-ए-गुज़िश्तगाँ हैं हम
अल्लाह-रे काफ़िरी तिरे तर्ज़-ए-ख़िराम की
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ