तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे
अश्कों ने बहाए हैं मिरे गंग ज़मीं पर
Javed Akhtar
Habib Jalib
Allama Iqbal
Gulzar
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Wasi Shah
Rahat Indori
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(283) Peoples Rate This
गर समझते वो कभी मअनी-ए-मत्न-ए-क़ुरआँ
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा
ले चली है जो दिल तो ज़ुल्फ़-ए-दराज़
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
नज़रों में एक बोसा माँगा था हम ने उस से
सादिक़ से बस इक आन में हो जावे तू काज़िब
मैं वो गर्दन-ज़दनी हूँ कि तमाशे को मिरे
नसीबों से कोई गर मिल गया है
भरी आती हैं हर घड़ी आँखें
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
मर्ग की देखते ही शक्ल गए भाग हवास