ख़ाक-ए-आग़श्ता-ब-ख़ूँ को मिरी बे-क़द्र न जान
गुल-बदन सारे इसे करते हैं उबटन अपना
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छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
बाज़ार से गुज़रे है वो बे-पर्दा कि उस को
कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
कूचा-ए-यार में रहने से नहीं और हुसूल
आसाँ नहीं है तन्हा दर उस का बाज़ करना
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
ऐसी आज़ुर्दगी क्या थी हमें इस कूचे से
लग रही है ख़ाना-ए-दिल को हमारे आग हाए
पाँव में क़ैस के ज़ंजीर भली लगती है
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
लैला चली थी हज के लिए जज़्ब-ए-इश्क़ से