कब शब-ए-वस्ल वो आया कि मिरे और उस के
दरमियाँ में शब-ए-हिज्राँ का फ़साना न रहा
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रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में फिरता हूँ भटकता कब का
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
तू मेरे सामने बैठा है आह तिस पर भी
ऐ 'मुसहफ़ी' गावे ये ग़ज़ल मेरी जो राँझा
ना-तवानी के सबब याँ किस से उट्ठा जाए है
छेड़ मत हर दम न आईना दिखा
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
हाथों से उस के शीशा-ए-दिल चूर है मिरा
मत गोर-ए-ग़रीबाँ पर घोड़े को कुदाओ यूँ
मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
हम से पाई नहीं जाती कमर उस की ऐ ज़ुल्फ़