छेड़ मत हर दम न आईना दिखा
अपनी सूरत से ख़फ़ा बैठे हैं हम
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कौन कहता है कि फिर ख़ाक से उठते हैं शहीद
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
जो तू ऐ 'मुसहफ़ी' रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
गर हो तमंचा-बंद वो रश्क-ए-फ़िरंगियाँ
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
उन को भी तिरे इश्क़ ने बे-पर्दा फिराया
तू गोश-ए-दिल से सुने उस को गर बत-ए-बे-मेहर
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
आज पलकों को जाते हैं आँसू