पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
बोला कि ये बदन पे तिरे सज गया लिबास
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हमेशा शेर कहना काम था वाला-निज़ादों का
किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली दहर
बिन ख़ूँ से लिक्खे कोई होता है नामा रंगीं
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
तो माइल-ए-उश्शाक़-कुशी है तो यहाँ भी
एक तो बैठे हो दिल को मिरे खो और सुनो
ऐ 'मुसहफ़ी' तू इन से मोहब्बत न कीजियो
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
हिन्दोस्ताँ में दौलत ओ हशमत जो कुछ कि थी
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
वो आप कर रही है मुदाम उस की जुस्तुजू
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़