किसी के अक़्द में रहती नहीं है लूली-ए-दहर
ये क़हबा रोज़-ए-अज़ल से है कुछ तलाक़-नसीब
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औरों की तरफ़ तू देखता है
सफ़्फ़ाक इब्तिदा से वो बे-रहम है ग़लत
शब जो होली की है मिलने को तिरे मुखड़े से जान
ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
ये जो अपने हाथ में दामन सँभाले जाते हैं
'मुसहफ़ी' रशहा-ए-क़लम से मिरे
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
वाँ रसाई ही नहीं मजनून-ए-सहरा-गर्द की
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
हर-चंद कि बात अपनी कब लुत्फ़ से ख़ाली है
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
देखें तो क्यूँकर वो काफ़िर दर तक अपने न आवेगा