तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
तू चमन में छोड़ दे मुझ को मिरे पर तोड़ कर
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काफ़िर मुझे न कहियो ऐ मोमिनान-ए-सादिक़
रात के रहने का न डर कीजिए
उस गली में जो हम को लाए क़दम
उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने
हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
है तिरी कू में ख़बर हश्र के हंगामे की
बंद भी आँखों को ज़री कीजिए
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
फ़िक्र-ए-सुख़न तलाश-ए-मआश ओ ख़याल-ए-यार
आह देखी थी मैं जिस घर में परी की सूरत
ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
क्यूँ शेर-ओ-शायरी को बुरा जानूँ 'मुसहफ़ी'