हम 'मुसहफ़ी' ब-कुफ़्र तो मशहूर हो चुके
आना क़ुबूल अब नहीं इस्लाम में हमें
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जी से मुझे चाह है किसी की
हर दम पुकारते हो किनाए से क्या मियाँ
बस-कि हों मिल्लत-ओ-मज़हब से जहाँ के आज़ाद
ख़्वाब का दरवाज़ा कुइ मसदूद कर देता है रोज़
रंग-ए-बदन से उस के ये होता जल्वा-गर
आलम को इक हलाक किया उस ने 'मुसहफ़ी'
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
आई जो रूह-ए-लैला ज़ियारत को क़ैस की
पहना जो मैं ने जामा-ए-दीवानगी तो इश्क़
चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
'मुसहफ़ी' गरचे ये सब कहते हैं हम से बेहतर
तेरे कूचे से सफ़र मैं ने किया था जिस दिन