आई जो रूह-ए-लैला ज़ियारत को क़ैस की
दी इश्क़ ने क़नात ब-गर्द-ए-मज़ार बाँध
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कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
आधी रात आए तिरे पास ये किस का है जिगर
ऐ 'मुस्हफ़ी' सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर
ग़बग़ब से बचा दिल तो ज़ख़ंदान में डूबा
हर चंद अमर्दों में है इक राह का मज़ा
सज्दा करता हूँ मैं मेहराब समझ कर उस को
मंज़िल-ए-मर्ग के आ पहुँचे हैं नज़दीक अब तो
मय पीने से वो आरिज़ क्या और हो गए थे
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
सल्तनत और ही माने रखती है
जब तक ये मोहब्बत में बदनाम नहीं होता