सल्तनत और ही माने रखती है
यूँ तो सर पर ख़ुरूस के भी है ताज
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चमन को आग लगावे है बाग़बाँ हर रोज़
उस बुत को नहीं है डर ख़ुदा से
मूसा ने कोह-ए-तूर पे देखा जो कुछ वही
आसिफ़ुद्दौला-ए-मरहूम वो था शुस्ता-मिज़ाज
जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
इन आँखों से आब कुछ न निकला
शब में देखी हैं पड़ी पाँव में ज़ंजीरें दो
दिलबर की तमन्ना-ए-बर-ओ-दोश में मर जाए
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद
कटता हूँ मैं भी वो कि मिरी जिंस-ए-दिल को देख