मर जाऊँगा मैं या वही जावेगा मुझे मार
अंजाम मिरा वस्ल की शब कुछ भी तो होगा
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ये ज़माना वो है जिस में हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द जितने
ताब-ओ-ताक़त रहे क्या ख़ाक कि आज़ा के तईं
ऐ 'मुसहफ़ी' शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
अपना तो तूल-ए-उम्र से घबरा गया है जी
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
सौ बार तुम तो सामने आ कर चले गए
रुख़ ज़ुल्फ़ में बे-नक़ाब देखा
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
कैसी फ़रफ़र ज़बान चलती है
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा