जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
पलकें नदीदियाँ हैं आँखें ख़ुमारियाँ हैं
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तरसा न मुझ को खींच के तलवार मार डाल
लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
वो दर तलक आवे न कभी बात की ठहरे
औरों की तरफ़ तू देखता है
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
पेच दे दे लफ़्ज़ ओ मअनी को बनाते हैं कुलफ़्त
मज्लिस में उस की अब तो दरबार सा लगे है
शब तबक़ में आसमाँ के गिर पड़े थे मेरे अश्क
तमाशे की शक्लें अयाँ हो गई हैं
तीरथ समझ उस को वो गर अश्नान को आवे
क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
मुज़्दा ऐ यास कि याँ कुंज-ए-क़फ़स के क़ैदी